हिंदी के प्रचार में साहित्यकारों की भूमिका
भारत- भूखंड, जनसमुदाय और बोलियों से संपन्न एक महान देश। साढ़े सात सौ से अधिक भाषाएं और विभिन्नताएँ। लेकिन, राष्ट्र भाषा हिंदी वो महासागर या कहें तो अपगानाथ जिसमें पंजाबी, अंगिका, बृज, राजस्थानी, हरियाणवी, मेवाती, अवधी अनेकों अन्य कल्लोलिनी रूपी बोलियां समा जाती हैं। हिंदी वो गोमुख जिसकी कई धाराएं साहित्य की तरंगिणी गंगा का निर्माण करती है। उत्तर भारत के लोग जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कन्याकुमारी की यात्रा पर सदियों से जाते रहे हैं तो दक्षिण और पश्चिमी भारत के लोग काशी, मथुरा, हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा करते रहे हैं। इन सबकी एक ही सम्पर्क भाषा होती थी, वह है हिंदी।
साहित्यकारों की बात करूं तो हिंदी के प्रसार के यज्ञ में जो समिधा उन्होंने डाली है उसी से ही इसके गौरव का अनुष्ठान पूर्ण हो पाया है। साहित्यकार किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित नहीं होता बल्कि वो सारे देश का होता है।
पांच सौ वर्ष पीछे चलते हैं। भक्तिकाल के मुख्य साहित्यकार सूरदास, कबीर, मीरा, रसखान, रहीम, ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, गुरु नानक महाराज और चैतन्य महाप्रभु जैसी विभूतियों ने हिंदी और इसकी सहायक भाषाओं के प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी। अगर गुरु नानक हिंदी बोल रहे हैं तो वह “गुरमुखी” होकर उनके श्रीमुख से निकल रही है। देश का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य हिंदी को बढ़ाने में सहयोगी रहा और यह सारे देश की संपर्क भाषा बन गई।
अब बात करते हैं, आज़ादी से पहले के साहित्यकारों की। इनमें “भारतेंदु हरिश्चंद्र” जी का नाम अग्रणी है। पत्रकारिता और निबंध लेखन में जो हिंदी साहित्य की सेवा इन्होंने की, वह किसी परिचय की मोहताज नहीं है। सारे देश में घूम घूम कर यह प्रसार करते थे। अम्बिकादत्त व्यास, बाल मुकुंद, काशीनाथ, तोताराम इत्यादि सब इन्हीं के शिष्य थे। साहित्य साधना में इन मनीषियों को कौन भूल सकता है।
इसके बाद बात करते हैं, “महावीर प्रसाद द्विवेदी” जी की। भारतेंदु जी के युग के साहित्यकारों ने विभिन्न विषयों और विधाओं पर काम अवश्य किया लेकिन व्याकरण की दृष्टि से कुछ कमी रह रही थी, जिसका परिमार्जन और परिष्करण द्विवेदी जी के युग के साहित्यकारों ने किया।
इन सबके इलावा मुंशी प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, सुभद्राकुमारी चौहान की भूमिका को कौन भुला सकता है।
दक्षिण पच्छिम भारत के साहित्यकारों की मातृभाषा चाहे कोई भी रही हो लेकिन हिंदी के विकास की रथ यात्रा में उनका योगदान सराहनीय रहा है। डॉ. अनंत सदाशिव उल्तेकर, एक महान साहित्यकार, जो कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति विभाग के अध्यक्ष भी थे, सदैव अपना शोधपत्र हिंदी में लिखते थे।
लेकिन दुख इस बात का है कि आज हम अपने पूर्वजों से शिक्षा न लेकर हिंदी को उसके असल स्वरूप से दूर करके मिश्रित भाषा में सृजन कर रहे हैं। स्वयंभू साहित्यकार धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का अंधानुकरण करके भाषा को विकृत कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगना जरूरी है ताकि राष्ट्र भाषा का प्रसार निर्विघ्न रूप से होता रहे और हिंदी माँ की तरह पूजी जाए।
हिंदी के प्रसार में हमारी राष्ट्रीय एकजुटता पुष्ट होगी।
अनुजीत इकबाल
लखनऊ