ग़ज़ल
" बंद आंखों का मंज़र"
इक परिंदा अभी उड़ान में है
तीर हर शख़्स की कमान में है!
जिस को देखो वही है चुप-चुप सा,
जैसे हर शख़्स इम्तिहान में है!
खो चुके हम यक़ीन जैसी शय
तू अभी तक किस गुमान में है?
ज़िंदगी संग-दिल सही, लेकिन,
आईना भी इसी चटान में है!
सर-बुलंदी नसीब हो कैसे
सर-निगूँ है,
के साए-बान में है।
ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ जागते सोते
कोई आसेब इस मकां में है।
आसरा दिल को इक उम्मीद का है
ये हवा कब से बाग-बान में है।
ख़ुद को पाया
न उम्र भर हम ने,
कौन है
जो हमारे ध्यान में है?
आज मैं उस से बिछड़ कर देखूँ...
बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ
रेग-ए-सहरा को
समंदर देखूँ।
क्या गुज़रती है मेरे बाद
उस पर,
आज मैं उस से बिछड़ कर देखूँ।
शहर का शहर हुआ
पत्थर का,
मैंने चाहा था के
मुड़ कर देखूँ।
ख़ौफ़, तंहाई ,घुटन ,सन्नाटा
क्या नहीं मुझ में
जो बाहर देखूँ?
हर इक शख़्स का दिल है
पत्थर का,
मैं जिधर जाऊँ
ये पत्थर देखूँ!
कुछ तो अंदाज़-ए-तूफ़ाँ हो ‘निर्झरा’,
नाव काग़ज़ की
चला कर तो देखूँ।
अगर वो डूब गया
तो दूर निकलेगा...
मेरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा।
इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा।
-डॉ .दक्षा जोशी ‘ निर्झरा’ ,गुजरात ।