*जी हां प्रकृति प्रेमी हूं मैं*
जी हां प्रकृति प्रेमी हूं मैं
सच में इसका ऋणी हूं मैं
शहर की भीड़भाड़ से दूर
जहां प्रकृति हो भरपूर
जहां दिखती हरियाली हो
मदमस्त झूम रही डाली हो
जहां कोयल है कू कू करती
गुंजित वन में मुधुरस भरती
जहां खग पंख से दूरी नापे
राग द्वेष कभी निकट न झांपे
जहां पवनपुत्र अटखेली करते
मृग वहां नित उलाछे भरते
सर सर करती हवा जहां पर
झर झर बहते झरने वहां पर
नहीं किसी का भय जहां पर
मिलता समरस भाव वहां पर
प्रकृति तो शास्वत अविरल
मिलता नया जीवन हर पल
सबकुछ तो वो हमको देती
बदले में हमसे कुछ न लेती
औपचारिकता से कोसों दूर
न कोई वहां कानून से मजबूर
सबकुछ निश्छल है जहां पर
सच में शुकून मिलता वहां पर
शुकून का अहसास करने को
कुछ अपनापन महसूस करने को
अंतरमन अपना खुश करने कौ
ऐसी प्रकृति के दर्शन करने को
चला मैं उस वन-उपवन की ओर
खींच रही उधर अंतरमन की डोर
ऐसी प्रकृति का ऋणी हूं मैं
जी हां सच प्रकृति प्रेमी हूं मैं।
✍️ पी एल सेमवाल
मसरास,नैनबाग, टिहरी गढ़वाल